(यह लेख पूर्व की ' गणेश दर्शन ' पत्रिका से यथारूप उद्धत करते हुए हमें आशा है कि पाठक हमारे प्रिय संस्थापक के उदगार भलीभांति हदयंगम कर सकेंगे |) |
प्रिय विद्यार्थियों,
जन्म से प्रत्येक शिशु स्वतः ही तीन ऐसे नैसर्गिक दायित्यों के बंधन में बंध जाता है जिनसे उसका छुटकारा केवल मृत्युपर्यन्त ही संभव है | उन उत्तरदायित्वों का वो कितना सही निर्वाह करता है , यही मानव जीवन के संघर्ष की कहानी है | ये तीन उत्तरदायित्व है : जिस परिवार में उसने जन्म लिया - उस माता-पिता का जिस जाति एवं धर्म में उसने जन्म लिया- उस समाज का , जिस धरती पर उसने जन्म लिया - उस गाँव एवं देश का | ये वो तीन ऐसे धरातल है जो उसे हमेशा कर्त्तव्य बोध कराते रहते है | मानव शैशवावस्था से लेकर अन्त तक क्षण-प्रतिक्षण इनके प्रभावों में ही पलता है | पंचतत्वों से बने इस शारीर का संचालन इस त्रिकोण की परिधि में ही सम्भव है | यही शायद पशु एवं मानव में अंतर भी है | मानव जीवन कि ये आधारभूति दैविक धरोहर है | जीवन कि यह यात्रा प्रत्येक मानव इनके प्रभावों में ही शुरू करता है | जिसको भी उन दायित्वों का बोध विशेष रूप से रहता है वो महामानव बन जाते हैं | ऐसे महामानव अपने परिवार एवं माता-पिता से मातृभूमि को सर्वोच्च स्थान देते है | अपनी जाति एवं धर्म से मानवता को ही अपना विशेष धर्म मानते है | अपने गाँव एवं देश से बसुधैव - कुटुम्बकम के ही विश्वास रखते है | इन्हे इतिहास महापुरुषों की संज्ञा देता है | वो पूज्यनीय बन जाते है | इन्ही को अवतार भी कहा जाता है | |
कहते है कि पितृ ऋण से तो तो मनुष्य उऋण हो सकता है परन्तु मातृऋण से नहीं |मैंने स्वयं महसूस किया कि नारीं का सर्वोच्च सुन्दर एवं त्रेष्ठ स्वरूप माता का है | वाही बालपन से आपको सम्मोहित करता रहता है |शायद इसी कारण प्रत्येक मनुष्य कि आत्मा को केवल माता ही संवार सकती है | पिता तो शारीर का पालक है | माँ शब्द परमात्मा से अवतरित आत्मा का ही उदघोष है | मेरे जीवन में मेरी माँ का पूर्व प्रभाव रहा | ऐसा प्रायः प्रत्येक के जीवन में रहता है | मेरी बचपन मेरे गाँव नरवल में ही मुख्य रूप से बिता | शायद इसीलिए ग्राम्य जीवन से एक दिली लगाव है | बचपन के अभाव शायद खेलते-कूदते कट जाते है और यही कारण है कि उनकी वेदना कम महसूस होती हैं | परन्तु माँ वो क्षण अभी तक जीवित चलचित्रों के समान याद थे | इसलिय उन क्षणों को याद कर वो हमेशा दु:खी हो उठाती थी | मैं हमेशा उनकी आँखों में उनकी पीड़ा पढ़ा करता था | शायद प्रत्येक माँ का पीड़ा के साथ एक अभिन्न रिश्ता है | |
बचपन के उन वर्षो ने मेरे ऊपर एक अमिट छाप छोड़ी थी | माँ से विशेष लगाव अपनी माटी से लगाव का विशेष कारण बना | माँ से लगाव हम सबको अपनी माटी से जोड़ता है | शायद इसीलिए हम इसे मातृभूमि कहते है ? राष्ट्र एवं देश बहुत बड़े शब्द है ? बहुत महान आत्मायें ही इनसे अपने आपको जोड़ पाती है ? साधारणतया मनुष्य मातृभूमि की संज्ञा अपने गाँव से ही देता है | मेरा गाँव ही मेरा देश है , यही मेरा विश्वास है | और अगर हम मनुष्य ऐसा सोचने लगे तो गाँवों से शाहरों की तरफ बढ़ता हुआ यह पलायन कुछ तो थमेगा | पलायन ही शायद आज के मानव की नियति सी बन गयी है | ऍम भाग रहे है गाव से शहरों की तरफ , भारतीयता से आधुनिकता की ओर, मानवता से पशुता की ओर - हर उस तरफ जो अमे कमजोर करता है यह दोड़ अमे कहाँ ले जायेगी , किसी को एक पल भी सोचने की फुरसत नहीं | आमने जीवन की गाडी एक ढलान पर दाल दी है जहा से हमें केवल फिसलना है | वो सभी संबल जिससे जीवन में स्थिरता आती है हमने कब के छोड़ दिए | आज मानव सबसे अधिक असहाय दिखता है | आर्थिक एवं बोद्धिक सम्पन्नता के बिच भी हमारी स्थिति भिखारियों जैसी है | |
धर्म ही जीवन को संयत करता है और संतुलन ही जीवन में स्थिरता लाता है | स्थित प्रज्ञ मानव को ही दिशा बोध होने पर स्वप्न जागते है और स्वप्नों की संकल्पों द्वारा ही संभव है | संकल्पों एवं स्वप्नों के क्षितिज पर सफलता आपका इंतजार कराती है | गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है - अपने -अपने धर्म का पालन , चाहे वो अधूरा ही क्यों न हो , दुसरे के धर्म के अनुसार से श्रेष्ठ है | किसी को क्या तकलीफ होती है अपनी अपनी धर्म परायणता में | कोई भी धर्म दूसरे के धर्म की अवहेलना नहीं सिखाता है | जब हम दुसरे के धर्म की तरफ एक अंगुली उठाते है तो चार अंगुलियाँ स्वयं ही आपकी तरफ उठा जाती है | जब हम दुसरे के धर्म की अव अवहेलना करते है तो स्वयं ही अपने धर्म की अवहेलना का प्रमाण प्रस्तुत करते है | मानवता का मूल मंत्र धार्मिक सहिष्णुता है | श्री गणेश शंकर विद्यार्थी धार्मिक सहिष्णुता के लिए शहीद हो गए | तभी तो वे महामानव कहलाये | नरवाल एवं इससे लगा हुआ क्षेत्र धन्य था कि एस महापुरुष ने अपनी कर्मभूमि चुना | श्रीकृष्ण कि ब्रजभूमि सदृश्य ही श्री गणेश कि कर्मभूमि का कण -कण उनकी अनेक गाथाओं से भरा पडा है | गणेश जी ने आजादी कि मशाल जलाकर क्षेत्र के हर गाँव एवं हर घर , में गरीबी से जूझती हुई जनता को आजादी के लिए खडा किया | सूना है नरवाल थाने में सर्वप्रथम तिरंगा फहराया गया | यही के स्वर्गिय श्याम लाल जी पार्षद के " झंडा उंचा रहे हमारा , विजयी विश्व तिरंगा प्यारा " पुरे देश में बच्चे - बच्चे कि जुबान में , स्वतंत्रता संग्राम का एक राष्ट्रीय गान बना | जिन सिद्धांतो के लिए गणेश जी जिए उन्ही के लिए वो शहीद हो गए | उनकी मौत भी लोगों के लिए ईष्या का कारण बन गयी | तभी तो गांधी जी कहा था कि गणेश सरीखी मौत मुझे क्यों नहीं मिली | |
आजादी के पचास वर्षो के अन्दर हम भूल गए गणेश से गांधी को आज गांधी केवल जयंती के अवसर पर ही याद आते है | अगर भारत सरकार ने गांधी जयंती पर सार्वजनिक अवकाश न रक्खा होता तो हमारे बच्चो को यह भी नहीं मांलूम होता कि मोहनदास कर्मचन्द गांधी जिन्हें हम महात्मा गांधी कहते है , हमारे राष्ट्रपिता थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करके हमें स्वाधीनता दिलाई थी | गणेश शंकर विद्यार्थी कि क्योकि राष्ट्र या प्रान्त स्तर परर जयंती नहीं मनायी जाती है इसीलिए हमारे पीढ़ी इन्हे भूल गई | मैंने एक अखबार के लेख में पढ़ा था कि एक बच्ची अपने पिटा से पूछती है कि जी . एस. वी. एम्. मेडिकल कालेज का पूरा नाम क्या है तो पिटा ने कुछ देर सोचकर कहा कि शायद यह किसी सेठ का संक्षिप्त नाम है | मुझे पथकर कोई आश्चर्य या दुःख नहीं हुआ क्योकि हमने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे गणेश शंकर विद्यार्थी को हमारे याद रखे | |
जीवन के तीस वर्षो के अंतराल के पश्चात जब मई 1989 में अपने गाँव के पास आया तो ऐसा लगा कि जैसे मेरा बचपन लौट आया हो मेरे माता -पिता भी गाँव आ गए फिर हर सप्ताह गाँव आने का अनवरत सिलसिला प्रारम्भ हो गया और समय के साथ-साथ मई अपने गाँव एवं उसकी समस्याओं से जुड़ता चला गया | कहते है वतन की मिट्टी की याद उन्हें अधिक आती है जो इससे दूर हो जाते है | मेर्रे साथ भी शायद यही हुआ हो | मै अपने को भाग्यशाली मानता हूँ कि 30 वर्षो के पश्चात अपने गाँव वापस आ गया | यह शायद देवकृपा ही थी अन्यथा लोग चाह कर भी नहीं आ पाते | वर्ष 1958 में जब मैंने भास्करानंद इंटर कालेज नरवाल से इंटर कि परीक्षा उत्तीर्ण कि थी तो एक बड़ा प्रश्न था अब कहा जाऊ या क्या करू ? आज भी वही प्रश्न बच्चो के सामने है | आजादी के इतने वर्षो के पश्चात भी पूरा क्षेत्र उच्च शिक्षा के वंचित है | अतः मैंने सोचा नई पीढ़ी को नई दिशा दिखाने का एकमात्र रास्ता उच्च शिक्षा के द्वार खोलना है | विकास समिति नरवल का गठन एवं उसके माध्यम से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय नई दिल्ली द्वारा मान्यता प्राप्त स्टडी सेंटर का संचालन प्रथम प्रयास थे | IGNOU का सन्देश " शिक्षा आपके द्वार पर " विशेष आकर्षण एवं जाग्रति का माध्यम न ले सका | ग्रामीण छात्र जिन्होंने अंग्रेजी से अपना पीछा करीब करीब छुडा ही लिया था इसका पूरा लाभ न ले सके | IGNOU पाठ्यक्रम शहरी विद्यार्थियों कि रिची विशेष को देखकर बनाया गया था इसलिए हिन्दी बाहुल्य प्रान्तों में इसका आकर्षण नगण्य सा ही रहा | इसी बीच विकास समिति नरवल ने गणेश शंकर विद्यार्थी कि प्रस्तर प्रतिमा जयपुर से बनवा कर मंगवा ली थी | उद्देश्य था कि गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा स्थापित गणेश सेवा आश्रम नरवल समिति के उनकी मूर्ति की स्थापना की जाये | परन्तु गणेश जी को समर्पित इस आश्रम के प्रबंध- तंत्र ने विकास समिति के प्रस्ताव को कुछ शर्तो के साथ अस्वीकार कर्र दिया | आज तक गणेश देवा आश्रम अपने संस्थापक की मूर्ति से वंचित है | इस घटना ने विकास समिति नरवल को एक नई दिशा दी और यह संकल्प लिया गया कि गणेश जी के एक महाविद्यालय कि स्थापना कि जाये जहा उनकी इस प्रस्तर प्रतिमा को स्थापित किया जाये | देखते अपार जनसहयोग से ग्राम टिकरा द्वारा प्रदत्त भूमि पर इस महाविद्यालय कि नीव रखी गयी और जुलाई 1992 में ग्यारह छात्रो कि संख्या से महाविद्यालय ने अपना प्रथम शैक्षिक सत्र प्रारम्भ किया | |
स्वर्गीं गणेश को समर्पित यह महाविद्यालय कहा तक क्षेत्रीय विद्यार्थियों के लिए आकर्षण का केंद्र बनेगा यह तो भविष्य ही बतायेगा | परन्तु मेरा स्वप्न है कि जिस तरह गणेश शंकर विद्यार्थी ने गुलामी के खिलाफ आजादी का दीपक नरवल से लगे 140 गाँवों में जलाया था उसी तरह यह महाविद्यालय उन 140 गाँवों के बच्चो के लिए उच्च शिक्षा कि एक तीर्थस्थली बने | अगर इस महाविद्यालय से व्याज समेत वापस कर दिया | परन्तु मै आपसे ही पूछता हूँ ? हजारो वर्षो जब धरती तपती है तो गणेश शंकर विद्यार्थी जैसा एक नामवर पैदा होता है | फिर भी मुझे पूर्ण विश्वास है कि : |
हर पत्थर की तकदीर संवर सकती है |
शर्त यह है कि उसे सलीके से तराशा जाए ||
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जय गणेश ,
तुम्हारा ही , ( विश्वनाथ ) |
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